Sunday, 28 September 2014

प्रतिशोध (अंश 6: समापन)

नोट: यह एक चल रही कहानी का छटवा और आखिरी अंश है पिछले अंश पढ़ने के लिए यहाँ जाएँ:-अंश 5अंश 4अंश 3अंश 2अंश 1

बड़ा भाई बौखला उठा. आँखों से पहली बार अश्रु की धारा दौड़ पड़ी. रुदन इतना तीव्र था कि कई मील दूर तक साफ़ सुना जा सकता हो. कई और घंटों तक इसी तरह अपने भाई को गोद में लिए वह रोता रहा. रात हो चुकी थी. गाँव के बाकी लोग मशालें लिए उसी जगह आ पहुँचे. आज तो मानो रात में ही दिन हो गया. इतनी लाशें नदी किनारे अपने दाह-संस्कार का लुफ्त ले रही थीं. जहाँ देखो वहाँ ही आग से आलिंगन सजाये शव अपनी शैय्या पर आराम से सो रहे थे. अब तो आँसू भी ना आते थे, आँखें सूजी हुई थीं पर क्रोधाग्नि से फिर भी प्रज्वलित थीं.

जैसे ही सुबह की पहली भोर फटी, सब अस्त्र-शस्त्र से सुसज्जित होकर उस पार अग्रसर हो चले. प्रतिशोध का चक्र कदम बढ़ा चूका था और अब यह वह पहिया बन चुका था जो बस अपने तले लोगों को रौंदना जानता था ना कि खुदपर सवार करा लोगों के मार्ग सुगम करता. नफरत नफरत को सुलगती रही और दोनों गाँव कट्टर दुश्मन बन गए.

अब ना तो दिन था ना रात, हर समय आसमान से लहू की बारिश होती थी. षड़यंत्र हर समय गठते रहते और बेवजह ही लोग मरते जाते थे. आलम ये हुआ कि अब शस्त्र सँभालने के हाथ ना बचे और ना ही बचे शैय्या उठाने के लिए काँधे. बस दो-चार इधरके और दो-चार उधरके लोग ही रह गए. जो अब ना चाहते थे कि और जाने जाएँ. युद्ध ना सही पर शी युद्ध की सी स्थिति रहने लगी. बड़ा भाई अब भी जिन्दा था परन्तु टूट चुका था. अपने भले-पूरे परिवार के दृश्य उसके सामने नाचते रहते और उसे शोक के सिवा कुछ और ना दे जाते.

कई साल बीत गए, अब दोनों गाँव की स्थिति काफी सुधर गई. वे अपने से मतलब रखने लगे. लड़ाई भी शान्त पड़ गई. बड़ा भाई अपनी ज़िन्दगी के आज चालीस साल पूरा कर लिया. घर की उदासी भी बहुत हद तक दूर हो गई. उसकी पत्नी और उसके दो बच्चों की चहचहाहट ने उसे बहुत कुछ सम्भाल लिया. अब बहउसनके साथ एक खुशहाल ज़िन्दगी बिता रहा था.

आज उसकी चालीसवी सालगिरह पर पकवान बन रहे थे और उसके बच्चे पूरे घरमें हुड़दंग मचा रहे थे. बह बाहर बैठ अखवार पर नज़रें फेर रहा था और साथ ही साथ चाय की चुस्कियाँ भर रहा था. तभी एक गाड़ी तीजी से आई और अचानक उसके घरके सामने रोक दी गई. गाड़ी पर लाल बत्ती थी और उसका रंग काला था. उस काली गाड़ी में से दो नौजवान सिपाही उतरे. एक ने भाग कर दूसरी तरफ का दरवाजा खोला. एक बना-ठना आदमी उसमे से निकला. छाती पर वर्दी चमक रही थी और सरपर फ़ौज वाली टोपी. वे अफसर साहब सीधे उसीके घर की ओर बढ़कर आ पहुँचे.

"क्या बाबू दयाराम का घर यही है?" अफसर ने पूछा.

"हाँ, जी मैं ही हूँ दयाराम."

"क्या आप बाबू संतराम के पुत्र हैं?"

"जी हाँ, पर पिताजी का स्वर्गवास हो चुका है."

"जी हम जानते हैं. माफ़ कीजियेगा हम इतने समय बाद आ पाए. असल में आपको खोजते-खोजते ही इतने साल बीत गए."

"मैं कुछ समझा नहीं, आप क्यों मुझे ढूंढ रहे हैं इतने समय से?!"

"दरअसल बात ये है कि हम यहाँ आपको ये एक लाख रुपये मुआवजा देने आये हैं."

"एक लाख रुपये मुआवजा!!! किस बात का भई?!!!"

"जी हमारी एक टुकड़ी यहाँ सशस्त्र अभ्यास कर रही थी जब गलती से आपके पिता को उसी अभ्यास के दौरान गोली लग गई. हमने बहुत कोशिश करी पर हम उन्हें बचा नहीं सके. और वहाँ उनके सिवा कोई और नहीं मिला जो इस गाँव का था तो उनका ठौर-ठिकाना भी नहीं जान पाए. इसलिए हम लोगों ने उन्हें अस्पताल में रहने दिया और सुनिश्चित कराया कि उनका शव इस गाँव तक पहुँच जाए. हम ऐसा स्वयं नहीं कर सके क्यूँकि हम सबको वहाँ से एक महत्वपूर्ण कार्य के लिए तुरंत निकलना पड़ा, जिसके लिए मैं आपसे माफ़ी मांगता हूँ! यह सरकार की तरफ से एक लाख रुपये स्वीकार करें. उनकी मृत्यु का हम सबको बहुत खेद है..." ये कहकर वह अफसर अपने सैनिकों के साथ गाड़ी में बैठकर चला गया.

बस ये सुनते ही बड़े भाई के पैरों तले जमीन खिसक गई; वह स्तब्ध रह गया; बीते सालों की एक-एक घटना उसके सामने सजीब हो उठी! उसके हाथों से चाय का प्याला गिर गया और बह खुद बेहोश होकर जमीन पर गिर पड़ा! ये आवाजें सुनकर उसकी पत्नी भागते हुए आई और उन्हें जमीन पर पड़ा देख घबरा गई. उसने जल्दी से यहाँ-वहाँ देखकर लोगों को बुलाया. एकाद समझदार व्यक्ति वैध को बुला लाया. उपचार चालू हुआ, कई यत्न किये गए, प्रार्थनाएँ हुईं. जैसे-तैसे बह होश में आया.

सदमा गहरा था, वह समझ नहीं पा रहा था क्या करे! व्याकुलता खाए लेती थी. विचार मन में ध्रुत गति से दौड़ रहे थे. इस सबके बीच एक बात उसके मन में आ धमकी, हाँ वही बात जो उसका छोटा भाई कभी उसे बोल गया था:-
"प्रतिशोध भावना से मनुष्य ने कुछ भी नहीं पाया है इस जगत में. आज उन्होंने हमारे बाबा को मारा है तो हम प्रतिशोध को आतुर हो उठे हैं क्योंकि हम अपने बाबा से प्रेम करते हैं. अब तुम वहाँ जा रहे हो उन सबका खात्मा करने, पर उनके भी वो लोग होंगे जो उनसे प्रेम करते हैं; कलको वो प्रतिशोध के लिए खड़े हो जाएँगे और वो फिर हमे ख़त्म करने आएँगे; इससे फिर घृणा उत्पन्न होगी और ये पहिया सदैव घूमता रहेगा. अंत में मृत शरीर रह जाएँगे और शायद कुछ लोग भी जिनके पास भाग्य को कोसने के सिवा जीवन में कुछ ना रह जाएगा. जाओ भाई जाओ तुम अपना प्रतिशोध पूरा करलो!"

बस ये विचार आते ही वह और ना रुका. उठकर अपने कमरे में गया और अंदर से द्वार लगा लिए. सभी लोग घबड़ाकर उसके पीछे भागे और दरवाजा खोलने का आग्रह करने लगे. सब लोग शोर मचा-मचाकर दरवाजे पर ठोकर दे रहे थे, कोशिश कर रहे थे कि किसी भी तरह वह दरवाजा खुल जाए. चाहे तो आग्रह से और ना हो तो बल से. इसी शोर के बीच एक बहुत तेज़ आवाज़ हुईं. ये आवाज उसी कमरे से आई थी जहाँ बड़े भाई ने खुदको बंद कर लिया था. हाँ वह बन्दूक आज आखिरी बार उस गाँव में शोर मचा गई और शोर के साथ उस महासग्राम के आखिरी हिस्सेदार को सदा के लिए ले गई...!


***समाप्त***


सभी पाठकों को बहुत-बहुत धन्यवाद मेरी इस कहानी से जुड़े रहने के लिए! त्रुटियों के लिए क्षमा प्रार्थी; सुझावों का सदैव स्वागत! धन्यवाद!

Saturday, 6 September 2014

प्रतिशोध (अंश 5)

नोट: यह एक चल रही कहानी का पाँचवा अंश है पिछले अंश पढ़ने के लिए यहाँ जाएँ:-अंश4अंश 3अंश 2अंश 1

जब मन आवारा हो जाता है और उसपर से दुनिया भर की जिम्मेदारियों का बोझ हट जाता है तो वह उछालें मारने लगता है; तरह-तरह के तिलिस्म उसे घेर लेते हैं और उसके साथ रास करने लगते हैं. ऐसा ही कुछ बड़े भाई के साथ हुआ. एक पल में सर से माँ-बाप दोनों का साया उठ जाने से वह आवारा हो चला था. अब छोटे भाई की ज़िम्मेदारियाँ उसपर ना थीं तो दुनिया के सारे अनूठे कृत्य उसे लुभाने लगे.  वह मदिरा पान करने लगा, जुआँ-दारू तो अब उसके साथी हो चले थे. आलम ये हुआ कि जो घर कभी संस्कारों की मूर्ती सा मालूम होता था वह अब जुआड़ियों और दारूखोरों का अड्डा बन गया. बड़ा भाई दिन भर नशे में धुत्त अपनी मदमस्त ज़िन्दगी गुजरने लगा. शायद अब वह भूल ही चुका था कि उसका कोई छोटा भाई भी इस दुनिया में जीवित है.

किसी रोज़ जब सुबह के सात बज रहे थे और बड़े भाई के घर में जुआड़ी तथा दारूखोर जमना शुरू ही हुए थे कि एक पन्सारी दौड़ता हुआ उस ओर आया. वह बहुत घबराया हुआ था और जोर-जोरसे हाँफी भर रहा था. बड़े भाई के कारण पूछे जाने पर बस यही बोला कि बाबूजी गजब हो गया! "क्या गजब हो गया?! सीधे से क्यों नहीं बोलता?!" बड़े भाई ने गुस्से से पुछा!

"क्या कहूँ बाबूजी हमला हो गया!"

"कहाँ हमला हो गया?"

"बाबूजी उस पार के गाँव के लोगों ने हमला ढा दिया!"

"क्या कहता है होश में तो है?!"

"हाँ बाबूजी नदी तरफ से घुस आये वे लोग और हमला कर दिए!"

"क्या कहता है, नदी तरफ से!!!"

"हाँ बाबूजी, वहीँ से आये हैं!"

बड़ा भाई यह सुनकर स्तब्ध रह गया मानो उसे साँप सूँघ गया हो. जिस चित्र को वह अपने मानस पटल से साफ़ कर चुका था वह क्षण भर में वापस खिंच गया. मुखारबिंद से सारा दारु का नशा उतर गया. बिजली की सी तेज़ रफ़्तार से वह घर के भीतर भाग और वह बंदूक जो अब सज्जा मात्र रह गई थी उसे दीवार से उतार लाया. 'छोटे भाई के प्राण खतरे में हैं', इस विचार ने उसे ऊपर से नीचे तक हिलोर दिया. वह भागता हुआ नदी किनारे पहुँच गया

दृश्य मर्मम निर्दयी था; गेहूँ के साथ घुन भी पिस गया. चमकीली रेत पर इन्सानो के साथ गए-बैलों के भी शव रक्त-लिप्त पड़े हुए थे.किनारे की बस्तियों और दुकानों का कहीं पता ना था; सब आग में जलकर राख हो चुकी थीं. यह दृश्य देखकर बड़े भाई की आत्मा तक काँप गई. मृत्यु का यह भीवत्स रूप अबतक वह बनाना जान पाया था पर उसने अपने जीवन में ये कल्पना नहीं की थी कि यह भीवत्स  दृश्य एक दिन अपने ही घर सज जाएगा. थोड़ी हिम्मत जुटा कर वह शवों को टटोलने लगा, बेहताशा से अपने भाई को खोजने लगा. शवों का मानो समुद्र सा उसके सामने पड़ा था जिसमे से उसे एक ख़ास तरह की बूँद की तलाश थी, हाँ उसके भाई की तलाश. इस असफल परिश्रम में संध्या हो चली थी, पर अब भी उसके छोटे भाई का कोई पता नहीं था. आखिर धैर्य टूट गया, आँखों में अश्रु की जगह खून उतर आया. अपनी बंदूक को अपने हाथों में तेजी से पकड़कर वह अकेला ही उसपार दौड़ पड़ा.

कदमों में थकने का नाम ना था और वे रफ़्तार पर रफ़्तार पकड़ रहे थे. परन्तु अचानक से बड़े भाई के पैर थम गए; कोई कराह रहा था! बड़े भाई ने इधर-उधर देखा तो पाया, नदी अपने पानी से किसी को धकेल रही थी, मानो चाहती हो उसे सोने ना दे. किसी भी तरह कुछ पल और उसे जगाए रखे. बड़ा भाई दौड़कर उसके पास पहुँचा और उसे अपनी गोद में उठा लिया. "भाई तुम गए!" बस इतना कहकर छोटे भाई ने उसकी ही गोद में अपने प्राण त्याग दिए!

आगे की कहानी प्रतिशोध (अंश 6: समापन)

Friday, 15 August 2014

प्रतिशोध (अंश ४)

नोटयह एक चल रही कहानी का चौथा अंश हैपिछले अंश पढ़ने के लिए यहाँ जाएँअंश अंश 2अंश 1



अभिमान अपने चरम को छू रहा था, अपने बल और बुद्धि दोनों पर बड़े भाई को घमंड हो चला था. मन में वे दृश्य हिलोरें मारते थे कि किस भाँति उसने अपनी बंदूक से एक-एक कि छाती छल्ली कर दी थी. ज्यों-ज्यों बड़े भाई के कदम घर की ओर आगे बढ़ते जा रहे थे उसका उन्माद उतना ही बढ़ता जाता था; मन परिकल्पनाओं के वशीभूत हो चला था और तत्पर इसी गुत्थी में उलझ रहा था कि उसकी ये विजय वह कौन-कौन से अलंकार से सजाकर अपने जनों के समक्ष प्रस्तुत करेगा!

आखिर एक लम्बी यात्रा का अंत हुआ; दस्ता अपने गाँव पहुँच गया. सबके परिजनों ने अपनों को गले से लगा लिया. हाँ कुछ परिवार ऐसे भी थे जिनके आलिंगन में शोक समा गया; ये वे परिवार थे जिनके पति, पुत्र आदि उस द्वेष आग की आहुति चढ़ चुके थे! आखिर कुछ नुकसान तो इन्हे भी उठाना ही पड़ा! गाँव में उत्सव की तैयारियाँ शुरू हो गईं; घर सजने लगे; पकवान बनने लगे; वीरों के तिलक हेतु चंदन-टीके की थाल सज गईं. देखते ही देखते सारे गाँव को किसी नयी दुल्हन सा श्रृंगार उढ़ा दिया गया!

बड़ा भाई भी इन्ही आशाओं को अपने ह्रदय में लिए घर को चल दिया. पर ये क्या, इसके घर में कोई उत्सव की तैयारियाँ थीं. घर वैसा ही शोकाकुल और नीरस प्रतीत होता था जैसा बड़े भाई ने अपने जाने से पहले इसे छोड़ा था, जब उसके बाबा की मृत्यु हुई थी. बड़े भाई ने घर में प्रवेश किया, उसे देखते ही छोटा भाई भागता हुआ आया और उसके गले लग गया! अपने बड़े भाई को वापस पाकर उसे इतना आनंद हो रहा था कि मानो सारी श्रिष्टि उसके कदम चूम रही हो. आँखों में आँसू भर आये थे पर कंठ से एक शब्द फूटता था. परन्तु  बड़े भाई ने इस प्रेम पर अलग ही प्रतिक्रिया दी, उसने अपने छोटे भाई को गले से छुड़ाकर दूर फेंक दिया और बोला, "मेरे मन में कायरों के लिए घृणा के अलावा कोई और भावना नहीं है! इस बात का मुझे सदा ही रंज रहेगा कि एक कायर का जन्म हमारे कुल में भी हुआ है. हम अभागे हैं कि तुझ जैसा स्वार्थी इस घर में जगह बनाए हुए है. भाग जा यहाँ से और आगे से मेरी आँखों के सामने आना वरना मार-मार के अधमरा कर डालूँगा तुझे". बस भाई का इतना ही कहना था कि छोटा भाई फुट-फूटकर बिखल पड़ा और घर से भाग गया और यह निश्चय भी कर बैठा कि अब घर कभी लौटेगा!

बड़ा भाई अंदर गया जहाँ उसकी माँ कमरे में बैठी गम खा रही थी और अपने भाग्य को कोस रही थी. उसने अपनी माँ के पैर छुए और गर्व से छाती फुलाकर बोला, " माँ, तुम्हारे सुहाग को उजाड़ने वालों का मैं अंत कर आया हूँ! अब तुम खुली हवा में साँस ले सकती हो और अपने पुत्र पर गर्व कर सकती हो!" माँ की इसपर कोई प्रतिक्रिया हुई अपितु उसने मुह फेर लिया और अपने ज्येष्ठ पुत्र से कुछ बोली. ज्येष्ठा पुत्र ने भरसक प्रयास किये पर कोई फायदा हुआ. माँ की चेत आत्मा मर चुकी थी, अब उसे किसी चीज़ में रस था. दिन बीतने लगे, अब छोटा भाई इस घर में रहता था. उसने नदी किनारे एक झोपड़ी बना ली थी और अब वहीँ अपना जीवन-यापन करता था. बड़े भाई को कुछ दिन बाद जब अपने छोटे भाई की याद आई तो उसने उसे बुला भेजा. पर जिसकी आत्मा छल्ली कर दी गई हो उसे दुनिया का कोई मोह पुलकित नहीं कर सकता. छोटा भाई लाख मानाने पर भी घर नहीं लौटा और बदले में यह संदेश घर भिजवा दिया कि अगर माता को साथ रखने में कोई कष्ट हो रहा हो तो उन्हें उसके पास भेज दिया जाए, वह सक्षम है और उनका भली तरह ख़याल रख सकता है! बड़े भाई के मन में जो स्नेह अंकुरित हुआ वह तुरंत ही समाप्त भी हो गया और वह फिर उससे घृणा करने लगा.

अब इस घर में कोई उत्सव नहीं मनता था. माता शोक भवन में पड़े-पड़े दिन-प्रतिदिन बीमार होती जाती थी; खाती थी, पीती थी. बड़ा भाई श्रेष्ठ वैद्यों को उसके इलाज के लिए लाता पर सबका यही कहना था कि यह कोई शारीरिक बीमारी नहीं है, वह मानसिक रूप से टूट चुकी है इसलिए हर दिन उसकी दशा बद से बद्तर हो रही है. संध्या का समय था, लोग दिनभर का कठिन परिश्रम कर अपने घरों को लौट रहे थे; मन में परिवार से मिलने, उनके साथ बैठकर वार्ता और भोजन करने की ख़ुशी थी. पर जिस समय पक्षी अपने घोंसलों को लौट जाते हैं और सूर्य देवता पृथ्वी को लालिमा में ओढ़ अपनी विदा का संकेत देते हैं, ठीक उसी समय उस माता के सारे कष्टों का अंत हो गया. उसके प्राण पखेरू इस निर्दयी दुनिया के छलावों को त्यागकर एक स्वच्छंद आकाश में उड़ गए! आखिर भगवान ने उसकी सुन ली, वह आज़ाद थी और अब उसे उसके स्वामी से मिलने से कोई नहीं रोक सकता था!



आगे की कहानी: अंश 5