Sunday, 20 December 2015

पन्ने...

कुछ पन्ने बिखरे पड़े हैं मेज़ पर,
गुदे से काली स्याह लिए.
किसी किताब का हिस्सा हुआ करते थे ये,
पूरा करते थे कभी कोई कहानी को.
अब तार-तार हुए पड़े हैं,
कोई तकता भी नहीं और कोई इन्हें जनता भी नहीं.
शायद वो लोग नहीं रहे जो, उन कहानियों में खुदको ढूंडा करते थे,
या फिर वो कहानियाँ ही नीरस हो गईं,
जो अब लोगों से वास्ता नहीं रखतीं.
पर फिर भी कितने आसान हैं ये पन्ने,
बिना शिकायत खुदको मौजूद रखते हैं हर पल,
कहानी न सही पर कभी भी कलम का साथ देने तैयार ये पन्ने,
मासूम से पड़े रहते हैं मेज़ पर.
ये बेहद नरम दिल पन्ने,
ये कभी ख़ामोशी में बात करने वाले पन्ने...!

Saturday, 11 July 2015

Boulevard of broken dreams: My weekend version :P


I wash my dirty clothes
Till the months that I have ever wore
Don’t know where it goes
But it’s home to me and I wash alone

I wash this stinking jeans
On the dhoobhighat of Broken Dreams
Where the city sleeps
And I’m the only one and I wash alone

I wash alone
I wash alone
I wash alone
I wash a…

My shadow’s the only one that washes beside me
My shallow hand’s the only thing that’s beating
Sometimes I wish someone out there will find me
‘Til then I wash alone

Ah-ah, ah-ah, ah-ah, aaah-ah,
Ah-ah, ah-ah, ah-ah

I’m washing down the line
I think dirt is now somewhere in my mind
On the border line
Of the edge and where I wash alone

Read instructions fine
When fucked up and everything’s alright
Then my Rin soap signs
To know I’m still alive and I wash alone

My shadow’s the only one that washes beside me
My shallow hand’s the only thing that’s beating
Sometimes I wish someone out there will find me
‘Til then I wash alone

Ah-ah, ah-ah, ah-ah, aaah-ah,
Ah-ah, ah-ah, ah-ah

I wash alone
I wash a…

I wash this stinking jeans
On the dhoobhighat of Broken Dreams
Where the city sleeps
And I’m the only one and I wash alone

My shadow’s the only one that washes beside me
My shallow hand’s the only thing that’s beating
Sometimes I wish someone out there will find me
‘Til then I wash alone


Thursday, 25 June 2015

मुंबई या स्विमिंग पूल?!

आज सुबह जब गुड्डू नींद से उठे तो वे ये नहीं जानते थे कि दिन का सूरज अठखेलियाँ करने को आएगा. दरअसल पिछले कई दिनों से अपनी स्वीमिंग क्लासेज जिसे हम हिंदी में तैराकी के अभ्यास की कक्षा कहते हैं, को अलाली की वजह से टाल रहे थे गुड्डू. एक IT कंपनी के होनहार तथा सताए हुए एम्प्लोयी, गुड्डू, वर्क लोड का हवाला देते हुए ये बहाने बाजी कर रहे थे. आज सुबह जैसे ही गुड्डू जी ने कमरे का दरवाजा खोला तो धरधराते हुए पानी ने जैसे उनकी सात पुश्तों को नींद से जगा डाला.

'वाटर-वाटर एवरीव्हेयर, बट नॉट ड्राप तो ड्रिंक', ये कहावत तो भली भांति जानते थे गुड्डू भाई लेकिन इस समय TO ड्रिंक नहीं TO मूत्र विसर्जन को व्यथित हो रहे थे. चारों तरफ पानी ही पानी. बाथरूम में चले तो जाएँ, पर अगर पैर संडास में फसकर मुरच गया तो तौबा रे तौबा; या फिर विसर्जन के समय कोई सर्प तैरता हुआ पैरों को लिपट ले तो ईश्वर ही बचाए जान. परेशान, हलाकान और खुदको असहाए सा महसूस कर रहे गुड्डू ने आखिर भगवान को याद किया.

भगवान को याद करने की देर ही क्या थी कि अचानक गुड्डू जी का फ़ोन टुनटुना उठा. फ़ोन की स्क्रीन पर प्रोजेक्ट मैनेजर की प्रोफाइल पिक्चर ऊपर-नीचे गोते ले रही थी. यहाँ भगवान को याद किया पर ये तो दैत्य ने दर्शन दे दिए. जरा साहस भर गुड्डू जी ने अपनी लघुशंका को भुला कर स्क्रीन पर चल रहे हरे रंग के आइकॉन को रगड़ा. रगड़न हुई या वो बिस्फोट था, दूसरी तरफ से कोई आदमी गुड्डू जी की माँ-बहनो को याद करने लगा!

ये वाकिया कुछ देर यूँ ही चला फिर फ़ोन रखकर गुड्डू जी ने ज़रा आंह भरी, फिर तैराकी की कक्षा में सीखे हुए अभ्यास का चिंतन किया और जय श्री राम का नारा लगाकर वे स्विमिंग पूल बने उस मुंबई में छलांग लगा गए. और हर IT एम्प्लोयी के एक ही भगवान मिस्टर प्रोजेक्ट मैनेजर की राह को हो लिए. आखिर आज उनके तैराकी के अभ्यास में कोई अलाली चली...

PS : ऐसे कई गुड्डू हर साल मुंबई की बारिश में ऑफिस इत्यादि जाने को इस स्विमिंग पूल में छलांग लगाते हैं. कई तो मशक्कत कर अपने देवता मिस्टर प्रोजेक्ट मैनेजर तक पहुँच जाते हैं, पर कई ऐसे भी हैं जिन्हे तैराकी का अभ्यास होने के कारण हमारे असली देवता को भेंट चढ़ना पड़ता है . आप सबसे विनती है की इन् गुडडुओं के लिए प्रार्थनाएँ करें. क्यूँकि अर्जियाँ तो हम सालों से सरकार को लगा ही रहे हैं. इस बार शायद ये प्रार्थनाएँ ही इनकी जान बचा सकें!
~रोहित नेमा

Thursday, 7 May 2015

ख्वाहिशें...!

अँधेरे गलियारों में भटकती,
ये ख्वाहिशें मेरी.
कभी हाल पूछो इनसे तो कह दें,
बस सब आराम है!

रेत सी फिसलती हैं ये,
अब तो सिमटती ही नहीं.
मुट्ठी भर भरूँ जो,
तिनके सी रह जाएँ!



किसी बारीक छेद से,
रिस रहीं हैं जबसे.
कब ख़त्म हो जाएँ,
नहीं जनता!

जैसे बुझती हुई लौ को,
बूँद भर तेल की आस हो.
कुछ वैसा ही सहारा शायद,
ये भी पल-पल तलाशती हैं!

हाँ किसी रोज़ एक,
ख्वाहिश ने जुर्रत की थी सहारा बनने की.
जाने क्या दुश्मनी थी जो,
गला ही घौंट दिया उसका!

अब आवाज़ नहीं उठाती हैं ये,
ज़रा टीस भी नहीं करतीं उमड़ने को.
जैसे रूठी हुई रानी खुदको कमरे में बंद कर किवाड़ लगा ले,
कुछ वैसी ही बंद रहती हैं किसी कोने में!

हाँ एक ख्वाहिश अब भी,
आज़ाद घूमती है.
परवाह नहीं करती वो,
गला रेंत दिए जाने की!

एक वही ख्वाहिश हैं जो,
मुझे ज़िंदा रखती है.
जमाने से आँख मिलने का,
साहस भरती है!

वही ख्वाहिश अंधियारों में,
उजाला फैलाए,
और कभी हाल पूछो उससे,
तो कह जाए 'बस सब आराम है!'