कुछ पन्ने बिखरे पड़े हैं मेज़ पर,
गुदे से काली स्याह लिए.
किसी किताब का हिस्सा हुआ करते थे ये,
पूरा करते थे कभी कोई कहानी को.
अब तार-तार हुए पड़े हैं,
कोई तकता भी नहीं और कोई इन्हें जनता भी नहीं.
शायद वो लोग नहीं रहे जो, उन कहानियों में खुदको ढूंडा करते थे,
या फिर वो कहानियाँ ही नीरस हो गईं,
जो अब लोगों से वास्ता नहीं रखतीं.
पर फिर भी कितने आसान हैं ये पन्ने,
बिना शिकायत खुदको मौजूद रखते हैं हर पल,
कहानी न सही पर कभी भी कलम का साथ देने तैयार ये पन्ने,
मासूम से पड़े रहते हैं मेज़ पर.
ये बेहद नरम दिल पन्ने,
ये कभी ख़ामोशी में बात करने वाले पन्ने...!