कल आया था वो कांट्रेक्टर,
कहता था बहुत ही उम्दा नया घर बनाया है.
संगमरमर का फर्श,
और छत में तो झूमरों की सजावट लगाई है.
और अब ये पुराने घर में रखा ही क्या है?
दीवारें भी बारिश में आँसू रोती हैं.
जिस छत को मुझे बचाना चाहिए,
वो अब खुद कहीं छाया ढूंढती है.
दाम किफायती लगाएगा कहता था.
बदले में ये घर भी,
कुछ ऊपर नीचे माप लेगा.
मुझसे कीमत पूछता है,
कि कितनी होगी इस घर की?
हिसाब में तो बचपन से कमज़ोर रहा हूँ,
किस तरह लगाऊं मैं कीमत इस घर की?
क्या कीमत होगी उस चौखट की,
जिसपर पर पैर रखकर मेरी माँ पहली बार कभी इस घर में आयी थी?
और तभी से हर रोज़ रंगोलियाँ बनाकर,
उसे सजाती रहती है.
लगभग कितने में जाएगी ये दीवार,
जिसे कभी एक कागज समझकर,
मैं दुनिया का सबसे बड़ा चित्रकार बनता था?
कितने का होगा ये फर्श,
जिसे थाली समझकर कभी मैं और मेरा भाई,
रोटियाँ रखकर खाया करते थे?
ये पोर्च कितने में लगेगा,
जहाँ हम अपनी छोटी सी मोटरसाइकिल पर बैठकर,
मन ही मन हवा से बातें करते थे?
वो कमरा कितने में जाएगा,
जहाँ रखा पलंग हमे अपने सिराहने सुला,
हज़ारों सपने दिखाता था?
लगभग कितने की होंगी,
वो सारी यादें,
जो ये घर हर पल बनाता था?
मैं बोला कांट्रेक्टर भैया,
रहने दो ये हिसाब हमसे न हो पाएगा,
ऐसे तो सारी धरती बिक जाएगी,
पर ये घर मुझसे न बिक पाएगा,
पर ये घर मुझसे न बिक पाएगा...!