Friday 15 August 2014

प्रतिशोध (अंश ४)

नोटयह एक चल रही कहानी का चौथा अंश हैपिछले अंश पढ़ने के लिए यहाँ जाएँअंश अंश 2अंश 1



अभिमान अपने चरम को छू रहा था, अपने बल और बुद्धि दोनों पर बड़े भाई को घमंड हो चला था. मन में वे दृश्य हिलोरें मारते थे कि किस भाँति उसने अपनी बंदूक से एक-एक कि छाती छल्ली कर दी थी. ज्यों-ज्यों बड़े भाई के कदम घर की ओर आगे बढ़ते जा रहे थे उसका उन्माद उतना ही बढ़ता जाता था; मन परिकल्पनाओं के वशीभूत हो चला था और तत्पर इसी गुत्थी में उलझ रहा था कि उसकी ये विजय वह कौन-कौन से अलंकार से सजाकर अपने जनों के समक्ष प्रस्तुत करेगा!

आखिर एक लम्बी यात्रा का अंत हुआ; दस्ता अपने गाँव पहुँच गया. सबके परिजनों ने अपनों को गले से लगा लिया. हाँ कुछ परिवार ऐसे भी थे जिनके आलिंगन में शोक समा गया; ये वे परिवार थे जिनके पति, पुत्र आदि उस द्वेष आग की आहुति चढ़ चुके थे! आखिर कुछ नुकसान तो इन्हे भी उठाना ही पड़ा! गाँव में उत्सव की तैयारियाँ शुरू हो गईं; घर सजने लगे; पकवान बनने लगे; वीरों के तिलक हेतु चंदन-टीके की थाल सज गईं. देखते ही देखते सारे गाँव को किसी नयी दुल्हन सा श्रृंगार उढ़ा दिया गया!

बड़ा भाई भी इन्ही आशाओं को अपने ह्रदय में लिए घर को चल दिया. पर ये क्या, इसके घर में कोई उत्सव की तैयारियाँ थीं. घर वैसा ही शोकाकुल और नीरस प्रतीत होता था जैसा बड़े भाई ने अपने जाने से पहले इसे छोड़ा था, जब उसके बाबा की मृत्यु हुई थी. बड़े भाई ने घर में प्रवेश किया, उसे देखते ही छोटा भाई भागता हुआ आया और उसके गले लग गया! अपने बड़े भाई को वापस पाकर उसे इतना आनंद हो रहा था कि मानो सारी श्रिष्टि उसके कदम चूम रही हो. आँखों में आँसू भर आये थे पर कंठ से एक शब्द फूटता था. परन्तु  बड़े भाई ने इस प्रेम पर अलग ही प्रतिक्रिया दी, उसने अपने छोटे भाई को गले से छुड़ाकर दूर फेंक दिया और बोला, "मेरे मन में कायरों के लिए घृणा के अलावा कोई और भावना नहीं है! इस बात का मुझे सदा ही रंज रहेगा कि एक कायर का जन्म हमारे कुल में भी हुआ है. हम अभागे हैं कि तुझ जैसा स्वार्थी इस घर में जगह बनाए हुए है. भाग जा यहाँ से और आगे से मेरी आँखों के सामने आना वरना मार-मार के अधमरा कर डालूँगा तुझे". बस भाई का इतना ही कहना था कि छोटा भाई फुट-फूटकर बिखल पड़ा और घर से भाग गया और यह निश्चय भी कर बैठा कि अब घर कभी लौटेगा!

बड़ा भाई अंदर गया जहाँ उसकी माँ कमरे में बैठी गम खा रही थी और अपने भाग्य को कोस रही थी. उसने अपनी माँ के पैर छुए और गर्व से छाती फुलाकर बोला, " माँ, तुम्हारे सुहाग को उजाड़ने वालों का मैं अंत कर आया हूँ! अब तुम खुली हवा में साँस ले सकती हो और अपने पुत्र पर गर्व कर सकती हो!" माँ की इसपर कोई प्रतिक्रिया हुई अपितु उसने मुह फेर लिया और अपने ज्येष्ठ पुत्र से कुछ बोली. ज्येष्ठा पुत्र ने भरसक प्रयास किये पर कोई फायदा हुआ. माँ की चेत आत्मा मर चुकी थी, अब उसे किसी चीज़ में रस था. दिन बीतने लगे, अब छोटा भाई इस घर में रहता था. उसने नदी किनारे एक झोपड़ी बना ली थी और अब वहीँ अपना जीवन-यापन करता था. बड़े भाई को कुछ दिन बाद जब अपने छोटे भाई की याद आई तो उसने उसे बुला भेजा. पर जिसकी आत्मा छल्ली कर दी गई हो उसे दुनिया का कोई मोह पुलकित नहीं कर सकता. छोटा भाई लाख मानाने पर भी घर नहीं लौटा और बदले में यह संदेश घर भिजवा दिया कि अगर माता को साथ रखने में कोई कष्ट हो रहा हो तो उन्हें उसके पास भेज दिया जाए, वह सक्षम है और उनका भली तरह ख़याल रख सकता है! बड़े भाई के मन में जो स्नेह अंकुरित हुआ वह तुरंत ही समाप्त भी हो गया और वह फिर उससे घृणा करने लगा.

अब इस घर में कोई उत्सव नहीं मनता था. माता शोक भवन में पड़े-पड़े दिन-प्रतिदिन बीमार होती जाती थी; खाती थी, पीती थी. बड़ा भाई श्रेष्ठ वैद्यों को उसके इलाज के लिए लाता पर सबका यही कहना था कि यह कोई शारीरिक बीमारी नहीं है, वह मानसिक रूप से टूट चुकी है इसलिए हर दिन उसकी दशा बद से बद्तर हो रही है. संध्या का समय था, लोग दिनभर का कठिन परिश्रम कर अपने घरों को लौट रहे थे; मन में परिवार से मिलने, उनके साथ बैठकर वार्ता और भोजन करने की ख़ुशी थी. पर जिस समय पक्षी अपने घोंसलों को लौट जाते हैं और सूर्य देवता पृथ्वी को लालिमा में ओढ़ अपनी विदा का संकेत देते हैं, ठीक उसी समय उस माता के सारे कष्टों का अंत हो गया. उसके प्राण पखेरू इस निर्दयी दुनिया के छलावों को त्यागकर एक स्वच्छंद आकाश में उड़ गए! आखिर भगवान ने उसकी सुन ली, वह आज़ाद थी और अब उसे उसके स्वामी से मिलने से कोई नहीं रोक सकता था!



आगे की कहानी: अंश 5

No comments:

Post a Comment