Wednesday, 19 March 2014

घर...!

एक घर बनाया है मैंने,
छोटा सा है और बहुत सुन्दर भी है,
खूबियाँ तो चुन-चुन के डाली हैं उसमें!

हिन्दू-मुस्लिम में भेद नहीं करता ये घर मेरा,
ही ऊँच-नीच की रीति पालता है ये,
सबको बस इंसान के नाम से जनता है!

इसलिए तो दरवाजे नहीं लगाये उसमें मैंने,
किसी के आने पर मनाही नहीं है,
सबको पनाह देता है वो घर मेरा!

हाँ ठोस दीवारें तो नहीं हैं उसमें,
ही रोड़े की छत है उसमें,
पर जमाने के कौतुहल से बचा लेता है मुझे!

शायद कमज़ोर सोचकर ही बहुत कोशिशें की लोगों ने इसे तोड़ने की,
पर मजबूती इतनी है की टूट नहीं सकता,
आखिर मेरे जस्बातों के स्तम्भ लगे हैं उसमें!

हर तरह की मदद मिलती है मेरे घर में,
कभी किसी दिन जब जरूरत पड़े तो आप भी आइयेगा,
बस चार कदम की दूरी पर है!

वही घर जिसे मैंने बनाया है,
जो छोटा सा है पर सुन्दर बहुत है,
वही जिसमे खूबियाँ चुन-चुन कर भरी हैं मैंने...!


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