Rohit's
Wednesday, 7 June 2023
Monday, 23 April 2018
लिबास-ऐ-पैरहन
जिस्म से चिपका ये पैरहन,
हाल दिल का कह रहा,
हर रफू से ख़ामोशियों का,
बाँध सा है बह रहा,
सब राज़ उधड़े से पड़े हैं,
बाँझ से अब चीखते,
सब कह गईं आँखें हम उनको,
और कबतक मीचते!
Monday, 17 April 2017
रात कुछ रुकी-रुकी
Sunday, 2 April 2017
दिवाली
वो आखिरी दफा शायद दिवाली में आया था... फटाके तो चल रहे थे बाहर। उनकी रौशनी तो याद नहीं, हाँ मगर आवाज़ें याद हैं। रामू कहता है इस उमर में मैं सठिया गया हूँ, दिवाली मुझे वही याद रह गई जब तक मेरी आँखें थी। वो कहता है कि क्या ज़रूरी है कि वो दिवाली ही हो जब पिछली दफा वो आया था? आजकल तो लोग किसी भी बात पर बम-फटाके चलाते हैं। ये भी तो हो सकता है कि भारत-पाकिस्तान का मैच हुआ हो उस दिन... ठीक ही तो कहता है वो, उसकी तो आँखें हैं वो सच को साफ देख सकता है। मैं तो आवाज़ों से चीज़ों का आकार बनाता हूँ, और कौन ही इतना उम्दा मिस्त्री हूँ की चोखा ही ढाल दूँ। मेरी तो आँखें नहीं हैं न, तो सच को कैसे देखूँगा?
बीते दिन हमारे घर से वो तांबे का लोटा भी चोरी हो गया जो इकलौता बर्तन हमारे पास बचा हुआ था। क्या? क्या पूछते हो? बाकी के बर्तनों का क्या हुआ? अरे वो तो एक -एक करके सारे चोरी हो गए। हर दिवाली कुछ न कुछ चोरी हो ही जाता है। क्या? दिवाली को ही क्यों? अरे अब हम रियासी सेठ थोड़ी हैं जो अपनी कीमती चीज़ों की हर रोज़ खुले आम नुमाईश करें, छोटे आदमी हैं भाई, दिवाली में ही निकाल पूजा करते हैं और अगले दिन जस के तस ताला मार देते हैं। पिछली दिवाली तो वो पिताजी का पेन भी चला गया जिसे मैं कभी अपने पॉकेट में डाल मास्टर बना करता था। रामू कहता है दिवाली नहीं थी वो, खैर, मेरे कानों ने ही फिर गलत तस्वीर रचाई होगी। रामू अच्छा आदमी है, घर के सारे काम तो कर ही देता है साथ ही मुझ अंधे आदमी के नित्त-कर्म में भी मदद करता है। बचपन में गरीबी की मार बड़ी बुरी पड़ी है बेचारे पर, तभी न वजन बढ़ा, न कद। अरे, मुश्किल से पचास किलो का होगा और लंबाई कुछ पाँच-तीन। क्या? मैं कैसे जनता हूँ ये? अरे बोला तो आवाज़ें लकीरें खींच देती हैं। उसके पाँव जब फर्श पर पड़ते हैं तो साफ बताते हैं कि कैसे गरीबी ने चूस लिया बेचारे को। भला आदमी बेचारा। मेरे पास भी अब कुछ बचा नहीं जिससे मैं उसकी अब और मदद कर सकूँ। हर दिवाली वो चोर कुछ न कुछ ले ही गया। कितना अजीब है, वो ठीक सामने वाले दरवाजे से आता है और एक-दो-तीन कदमो के बाद धीरे से दरवाजा बंद कर देता है। जो भी हो , है बड़ा सज्जन, अपनी चप्पलें ध्यान से बाहर ही निकाल देता है। फिर कुछ देर वहीं बाहर वाले कमरे में खड़ा पूरे घर का अंदाजा लेता है, ठीक तबतक जबतक कि घड़ी 80 बार टिक-टिक न बोल दे। शायद उसे ठीक पता होता है कि उसे इस दिवाली क्या चुराना है तभी तो सीधे अंदर वाले कमरे में पहुँचता है जहाँ से उसे वो चीज़ उठानी हो वो भी ठीक 14 कदम लेकर। पता नहीं क्यों वो जब सब बटोर लेता है तो बाहर वाले कमरे में आकर घड़ी की 130 टिक तक वहीं खड़ा रहता है। भगवान ही जाने क्यों करता है वो ऐसा। लेकिन भला मानुस है, दरवाज़ा कुण्डी लगाकर जाता है , शायद सोचता हो कि कोई जानवर न घुस जाए रात में। पिछली दफा उसके पैर में कुछ लगा था, तभी तो पैर घिसट के चल रहा था। बेचारा, भला मानुस।
अरे रामू, दिवाली तो अभी दूर हैना? अच्छा, कल ही निकली है क्या। अगली दिवाली तक तो शायद ये शरीर साथ न दे पाएगा। अच्छा सुन, मेरे जाते-जाते फटाके चला देना। मैं उनकी आवाज़ सुनकर दिवाली मान लूँगा, हसीन रौशनियाँ, बेशुमार रोशनियाँ... तू आँखों से देख लेना, तेरी तो आँखें हैना, और मैं कानो से चित्र खींच लूँगा। अरे हाँ, इस बार तो लोटा भी नहीं बचा तो एक काम कर ये चूल्हा ही ले जाना तू। और अपने पैर की पट्टी ज़रूर करा लेना। पर बाहर वाले कमरे में घड़ी की 130 टिक तक इस बार रुके मत रहना, कहते हैं आत्मा सब देख सकती है। शायद मेरे जाने के बाद मुझे भी आँखें आ जाएँ और मैं तुझे कमरे में खड़ा देख लूँ...
Tuesday, 21 March 2017
ये हँसी सस्ती सी लगती है
Wednesday, 1 February 2017
गुस्ताख़ी ही करता हूँ
Tuesday, 13 December 2016
नमकीन ज़िन्दगी
Monday, 24 October 2016
चार आने!
Saturday, 15 October 2016
ये घर कितने में जाएगा?
Sunday, 2 October 2016
दीवारें झड़ रहीं हैं!
Saturday, 27 August 2016
बड़ा दिन
गाडी ने जमकर खाई,